प्राय: योगाचार्य ध्यान-साधना में प्रवेश को सहजता में लेते है और बिना किसी पूर्व तैयारी के ध्यान पर बैठा देते हैं। यह ठीक उसी प्रकार की बात है बन्दूक चलाना सिखाया नहीं। बन्दूक की अहमियत बताई नहीं। बन्दूक चलाने के यम-नियम बताये नहीं और बन्दूक हाथ में थमाकर युद्ध के मैदान पर भेज दिया।
जबतक अस्त्र चलाना ना आता हो और उसे चलाने की प्रवृति का अभ्यास ना हो जाए तब तक अस्त्र लेकर युद्ध-क्षेत्र या किसी भी क्षेत्र में भेजना अति खतरनाक है।
ध्यान-साधना में प्रवेश से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि यह साधना क्यों?
आमतौर पर इसे जन-कल्याण अथवा समाज-कल्याण के निहित बताया जाता है।
चलिए थोड़ी देर के लिए मान भी लेते है कि यह जन-कल्याण और समाज-कल्याण के निमित है।
तो क्या पहले हम समझते हैं कि जन-कल्याण या समाज-कल्याण है क्या??
पहले समझना होगा जन क्या है?
समाज क्या है?
फिर उनके कल्याण की बात हो सकती है।
पहला 'जन' हर व्यक्ति स्वयं होता है। इसी तरह समाज की पहली इकाई वह स्वयं होता है।
स्वयं पर नियंत्रण, उसके सञ्चालन पर नियंत्रण, मानवीय संस्कारों का स्वयं में बीजारोपण आदि पहला जनकल्याण और समाज कल्याण है।
अब सवाल है क्या आप इसके लिए तैयार हैं?
प्राय: लोग खुद को इसके लिए तैयार समझते हैं।
पर जब भी आप स्वयं कहते हैं, मैं तैयारी में हूँ आप दे दें, फेल हो जाते हैं, क्योंकि देने वाले को सिर्फ हक होता है कि वह परीक्षण कर तय करे कि लेने वाला पात्र तैयार है कि नहीं।
पात्र पञ्च तत्वों से बना मिट्टी का लौंडा है। पहले चाक पर चढ़ाकर उसके पंचतत्वों को सन्तुलित किया जाता है। फिर उसे आकार दिया जाता है। फिर सुखाकर स्थायित्व देते हैं, तब उसमे सामग्री रखते हैं।
यदि पात्र कच्चा रह गया है, तो जो भी उसमें रखा जाएगा मिट्टी बन जाएगा।
अब कुम्हार की कुशलता और मिट्टी की प्रकृति तय करती है कि पात्र कितनी जल्दी तैयार होगा, फिर भी एक निम्न समय-सीमा तो होती ही है।
जैसे कोई वृक्ष चाहे कितनी अच्छी प्रजाति का लगाएं उसके विकास की जो एक निश्चित सीमा है उस समय तक फल के लिए इन्तजार तो करना पड़ेगा।
सद्गुरु ही वह कुम्हार हैं, जो सही पात्र निर्मित करते हैं।
सद्गुरु हमेशा कहते हैं....
सबसे जरूरी स्वयं का परिमार्जन प्रारम्भ करें।
अपनी भावना पर नियंत्रण प्रारम्भ करें।
अंदर और बाहर को एक कर लें।
आप जीवन के जिस भी पड़ाव पर हैं, उस क्षण को पूरी जीवटता के साथ जीएं,जिंदादिली के साथ जीएं।
केवल उस क्षण में जीएं जो सामने है,जैसा भी है।
पुरानी बातों से अनावश्यक रूप से अपने ऊपर बोझ न डालें और न ही अपने वर्तमान पर भूत का बोझ पड़ने दें।
जीवन के अध्याय जैसे जैसे समाप्त होते जाएँ,उन्हें बंद करते जाएँ। वापस बार बार पीछे जाकर उन अध्यायों को,पुरानी बातों को खोलने की कोशिश न करें अन्यथा आप अपने वर्तमान को भी ख़राब कर लेंगे।
न तो पूर्व की किसी बात को नए तरीके से आंकलन कीजिए। हो सकता है कोई पुरानी बात आज के परिपेक्ष में आपको ठीक न लगे लेकिन उस समय के अनुसार वह शायद उस सन्दर्भ में ठीक रही होगी।
और आज की बात आज के सन्दर्भ में सही हो सकती है। इसलिए उनकी तुलना मत कीजिए।
हो सकता है कि हम बाहर की दुनिया में बहुत सफलता प्राप्त कर लें, पर असली सफलता तो अपना आतंरिक परिवर्तन,पहले अपने को बदलना आवश्यक है।
जैसे ही बदलाव प्रारम्भ हो जाएगा, आप ध्यान-साधन के पात्र बन जाएँगे, फिर वहां के लक्ष्य आपके होंगे।