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Friday, 18 October 2013

हमारे शब्द

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के अनुसार सारी सृष्टि का निर्माण मात्रिका वर्णों से हुई है। मात्रिका वर्णों से ही हम अपनी भावनाओं को , अपनी इच्छाओं को, अपनी समस्याओं को मूर्त रूप प्रदान करते हैं। तात्पर्य यह कि हमारी हर गतिविधि शब्दों के दायरे में सिमटी होती है। हमारे शब्द जितने संयमित और संतुलित होते हैं हमारी गतिविधियाँ उतनी ही शिष्ट और संतुलित होती है।
      ये शब्द चाहे हमारे अन्दर के हो या बाहर के। हमारे  अंदर के शब्द (सोच) हालांकि हमेशा दिखते  नहीं है। हम उसे दबाकर रखते हैं। सार्वजनिक स्थल पर हम अपने  बाहर के शब्द (सोच ) से काम चलाते हैं, जो प्राय: हमारे अंदर के शब्द से मेल नहीं खाते । जबकि वास्तविकता  में हर जगह हमारे अंदर के शब्द ही हमें संचालित करते हैं। हमारे अंदर के शब्द जितने साफ़ और सुलझे होंगे हमारे बाहर के शब्द और गतिविधियाँ भी उतनी ही सुलझी होगी। हमें अपने अंदर और बाहर के शब्दों में संतुलन रखना चाहिए ताकि जीवन क्षेत्र की हमारी हर गतिविधियाँ भी संतुलित रहे और  जीवन में कहीं हमारे कदम रुके नहीं।       

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