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Saturday, 27 April 2013

गुरुगीता में गुरु के विशिष्ट लक्षण

गुरुगीता में गुरु के विशिष्ट लक्षण

१.  "एक  एव गुरुर्देवि " गुरु केवल एक है।
२. "सर्वत्र प्रीगियते " वे ही अनेक रूपों में विद्यमान हैं। 
३. "सर्वं गुरुमय जगत"   समस्त जगत गुरु-मय है।
४. "गुरुस्त्वमसि देवेशि मन्त्रॉअपि गुरुच्यते " भगवती पार्वती (शक्ति ) एव मन्त्र भी गुरु है।
५. "अतो मन्त्रे गुरौ देवे न भेदश्च प्रजायते "  मन्त्र, गुरु एवं देवता - इन तीनों में कोई भेद नहीं (पृथकता ) नहीं
      है।
६. "गुरु:पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो महेश्वर: " गुरु ही पिता, माता, देवता, महेश्वर है।
७. गुर के शरीर में ब्रह्मा ,महेश्वर ,पार्वती ,इंद्रादिक ,देवता , कुबेरादिक यक्षगण ,सिद्धगण ,गन्धर्वगण गंगादिक
     नदियाँ ,नागगण एवं समस्त स्थावरजंगम आदि सभी निवास करते है।     
 ८. "गुरौ मनुष्यता बुद्धि: शिष्यानां यदि जायते। न हि तस्य भवेत सिद्धि: कल्पकोटिशतैरपि "  यदि कोई गुरु
      को मनुष्य मान ले तो करोड़ों कल्पों में भी उसे साधना में सफलता नहीं मिल सकती। 

  





Monday, 22 April 2013

सबसे बड़ी पूजा

सबसे बड़ी पूजा किसे कहते हैं?
इस जिज्ञासा के उत्तर में भगवान कहते हैं -
 सारी क्रिया परमात्मा को  अर्पित कर अक्रिया भाव में अवस्थित रहना सबसे बड़ी पूजा है।
भगवान् शंकर कहते हैं - मानव शरीर दिव्य शक्तियों और शक्ति मंत्रो का अपना अधिष्ठान है। इसलिए इसे देवालय कहते हैं। इसमें प्रधान रूप से जिस देवता का निवास है,वही जीव कहलाता है। शास्त्र में इसे सदाशिव कहते हैं।  इसके ऊपर अज्ञान का आवरण चढ़ा रहता है। अज्ञान के इस आवरण को  हटाना ही पूजा है।     
                                                                                                                                    कुलार्णवतंत्र 

प्रेम क्या है ?

एक शिष्य  ने रामकृष्ण परमहंस से पूछा - प्रेम क्या  है ?
रामकृष्ण परमहंस ने कहा - प्रेम कई प्रकार के  होते है। जैसे -
साधारण
समंजस
और समर्थ
साधारण - इस प्रेम में प्रेमी सिर्फ अपना ही सुख देखता है। वह  इस  बात की चिंता नहीं करता कि दूसरे व्यक्ति को भी उससे सुख है कि नहीं।
समंजस - इस प्रेम में  दोनों एक दूसरे के सुख के इक्छुक होते हैं। 
समर्थ -  यह सबसे उच्च दर्जे का प्रेम है। इस प्रेम में प्रेमी  कहता है - तुम सुखी रहो, मुझे चाहे कुछ भी हो। राधा में ये प्रेम विद्यमान था। श्रीकृष्ण के सुख में ही उन्हें सुख था। हनुमान में भी  ये प्रेम विद्यमान था। श्रीराम  के सुख में ही उन्हें सुख था।
                                     यह प्रेम तभी पैदा हो सकता है जब व्यक्ति अपने अहम् को मिटाकर स्वयं को अपने प्रेमी में समाहित कर दे। जैसे राधा या हनुमान ने किया। 
     

Wednesday, 10 April 2013

न्यास का अर्थ

ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार  -
        न्यास  का अर्थ है - स्थापना। बाहर और भीतर के अंगों में इष्टदेवता और मन्त्रों की  स्थापना ही न्यास है।
इस स्थूल शरीर में अपवित्रता का ही साम्राज्य है,इसलिए इसे देवपूजा का तबतक अधिकार नहीं है जबतक यह शुद्ध एवम दिव्य न हो जाये। जबतक इसकी (हमारे शरीर की  )अपवित्रता बनी  है, तबतक इसके स्पर्श और स्मरण से चित में ग्लानि  का उदय होता रहता है। ग्लानियुक्त चित्तप्रसाद और भावाद्रेक से शून्य होता है, विक्षेप और अवसाद से आक्रांत होने के कारण बार-बार मन प्रमाद और तन्द्रा से अभिभूत हुआ करता है। यही  कारण है कि मन न तो एकसार स्मरण ही कर सकता है और न विधि-विधान के साथ किसी कर्म का सांगोपांग अनुष्ठान ही।
                         इस दोष को मिटाने के लिए न्यास सर्वश्रेष्ठ उपाय है। शरीर के प्रत्येक अवयव में जो क्रिया सुशुप्त हो रही है, हृदय के अंतराल में जो भावनाशक्ति मुर्छित  है, उनको जगाने के लिए न्यास अचुक  महा औषधि है।
     शास्त्र में यह बात बहुत जोर देकर कही गई है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मन्त्रसिद्धि हो जाती है। हमारे भीतर-बाहर अंग-प्रत्यंग में देवताओं का निवास है, हमारा अन्तस्तल और बाह्रय शरीर दिव्य हो गया है - इस भावना से ही अदम्य उत्साह, अदभुत स्फूर्ति और नवीन चेतना का जागरण अनुभव होने लगता है। जब न्यास सिद्ध हो जाता है तब भगवान् से एकत्व स्वयंसिद्ध हो जाता है। न्यास का कवच पहन लेने पर कोई भी आध्यत्मिक अथवा आधिदैविक विघ्न पास नहीं आ सकते है और हमारी मनोवांछित इच्छाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।

ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार न्यास के प्रकार
     न्यास कई प्रकार के होते है।
1. मातृका न्यास - १. अन्तर्मातृका न्यास  २. बहिर्मातृका न्यास  ३ संहारर्मातृका न्यास
2. देवता न्यास
3. तत्व न्यास
4. पीठ न्यास
5. कर न्यास
6. अंग न्यास
7. व्यापक न्यास
8. ऋष्यादि  न्यास
               इनके अतिरिक्त और भी बहुत से न्यास है,  जिनके द्वारा  हम अपने शरीर के असंतुलन को  ठीक कर शरीर को देवतामय बना सकते है। सभी न्यास का एक विज्ञान है और यदि नियमपूर्वक किया जाय तो ये हमारे शरीर और अंत:करण  को दिव्य बनाकर स्वयं ही अपनी महिमा का अनुभव करा देते है। 

 न्यास का  महत्त्व
न्यास का हमारे जीवन  में बहुत महत्त्व है। जब शरीर के रोम-रोम में न्यास कर लिया जाता है, तो मन को इतना अवकाश ही नहीं मिलता और इससे अन्यत्र कहीं स्थान नहीं मिलता कि वह और कहीं जाकर भ्रमित हो जाय। शरीर के रोम-रोम में देवता, अणु-अणु में देवता और देवतामय शरीर। ऐसी स्थिति में  हमारा मन दिव्य हो जाता है। न्यास से पूर्व जड़ता की स्थिति होती है। जड़ता के चिंतन से और अपनी जड़ता से यह संसार मन को जड़ रूप में प्रतीत होता है। न्यास के बाद इसका वास्तविक चिन्मय  स्वरूप स्फुरित होने लगता है और केवल चैतन्य ही चैतन्य रह जाता है।   
 इसी निमित्त न्यास योग के प्रवर्तक  हमारे गुरु - डा . बी . पी . साही ने न्यास साधना को न्यासयोग में तब्दील किया। इस योग के माध्यम से शरीर, मन और  आत्मा में संतुलन स्थापित करना सिखाया जाता है यही तंत्र, मंत्र और हर साधना का अंतिम लक्ष्य है। न्यास योग के माध्यम से गुरु जन-जन में साधना का सही स्वरूप निरुपित कर देना चाहते है ताकि  समाज का हर व्यक्ति स्वस्थ हो, प्रसन्न हो।             

न्यास का महत्त्व

न्यास का हमारे जीवन  में बहुत महत्त्व है। जब शरीर के रोम-रोम में न्यास कर लिया जाता है, तो मन को इतना अवकाश ही नहीं मिलता और इससे अन्यत्र कहीं स्थान नहीं मिलता कि वह और कहीं जाकर भ्रमित हो जाय। शरीर के रोम-रोम में देवता, अणु-अणु में देवता और देवतामय शरीर। ऐसी स्थिति में  हमारा मन दिव्य हो जाता है। न्यास से पूर्व जड़ता की स्थिति होती है। जड़ता के चिंतन से और अपनी जड़ता से यह संसार मन को जड़ रूप में प्रतीत होता है। न्यास के बाद इसका वास्तविक चिन्मय  स्वरूप स्फुरित होने लगता है और केवल चैतन्य ही चैतन्य रह जाता है।   

Monday, 8 April 2013

न्यास के प्रकार

ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार न्यास के प्रकार 
     न्यास कई प्रकार के होते है। 
1. मातृका न्यास - १. अन्तर्मातृका न्यास  २. बहिर्मातृका न्यास  ३ संहारर्मातृका न्यास
2. देवता न्यास 
3. तत्व न्यास 
4. पीठ न्यास 
5. कर न्यास 
6. अंग न्यास 
7. व्यापक न्यास 
8. ऋष्यादि  न्यास 
               इनके अतिरिक्त और भी बहुत से न्यास है,  जिनके द्वारा  हम अपने शरीर के असंतुलन को  ठीक कर शरीर को देवतामय बना सकते है। सभी न्यास का एक विज्ञान है और यदि नियमपूर्वक किया जाय तो ये हमारे शरीर और अंत:करण  को दिव्य बनाकर स्वयं ही अपनी महिमा का अनुभव करा देते है।