ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार -
न्यास का अर्थ है - स्थापना। बाहर और भीतर के अंगों में इष्टदेवता और मन्त्रों की स्थापना ही न्यास है।
इस स्थूल शरीर में अपवित्रता का ही साम्राज्य है,इसलिए इसे देवपूजा का तबतक अधिकार नहीं है जबतक यह शुद्ध एवम दिव्य न हो जाये। जबतक इसकी (हमारे शरीर की )अपवित्रता बनी है, तबतक इसके स्पर्श और स्मरण से चित में ग्लानि का उदय होता रहता है। ग्लानियुक्त चित्तप्रसाद और भावाद्रेक से शून्य होता है, विक्षेप और अवसाद से आक्रांत होने के कारण बार-बार मन प्रमाद और तन्द्रा से अभिभूत हुआ करता है। यही कारण है कि मन न तो एकसार स्मरण ही कर सकता है और न विधि-विधान के साथ किसी कर्म का सांगोपांग अनुष्ठान ही।
इस दोष को मिटाने के लिए न्यास सर्वश्रेष्ठ उपाय है। शरीर के प्रत्येक अवयव में जो क्रिया सुशुप्त हो रही है, हृदय के अंतराल में जो भावनाशक्ति मुर्छित है, उनको जगाने के लिए न्यास अचुक महा औषधि है।
शास्त्र में यह बात बहुत जोर देकर कही गई है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मन्त्रसिद्धि हो जाती है। हमारे भीतर-बाहर अंग-प्रत्यंग में देवताओं का निवास है, हमारा अन्तस्तल और बाह्रय शरीर दिव्य हो गया है - इस भावना से ही अदम्य उत्साह, अदभुत स्फूर्ति और नवीन चेतना का जागरण अनुभव होने लगता है। जब न्यास सिद्ध हो जाता है तब भगवान् से एकत्व स्वयंसिद्ध हो जाता है। न्यास का कवच पहन लेने पर कोई भी आध्यत्मिक अथवा आधिदैविक विघ्न पास नहीं आ सकते है और हमारी मनोवांछित इच्छाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।
ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार न्यास के प्रकार
न्यास कई प्रकार के होते है।
1. मातृका न्यास - १. अन्तर्मातृका न्यास २. बहिर्मातृका न्यास ३ संहारर्मातृका न्यास
2. देवता न्यास
3. तत्व न्यास
4. पीठ न्यास
5. कर न्यास
6. अंग न्यास
7. व्यापक न्यास
8. ऋष्यादि न्यास
इनके अतिरिक्त और भी बहुत से न्यास है, जिनके द्वारा हम अपने शरीर के असंतुलन को ठीक कर शरीर को देवतामय बना सकते है। सभी न्यास का एक विज्ञान है और यदि नियमपूर्वक किया जाय तो ये हमारे शरीर और अंत:करण को दिव्य बनाकर स्वयं ही अपनी महिमा का अनुभव करा देते है।
न्यास का महत्त्व
न्यास का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। जब शरीर के रोम-रोम में न्यास कर लिया जाता है, तो मन को इतना अवकाश ही नहीं मिलता और इससे अन्यत्र कहीं स्थान नहीं मिलता कि वह और कहीं जाकर भ्रमित हो जाय। शरीर के रोम-रोम में देवता, अणु-अणु में देवता और देवतामय शरीर। ऐसी स्थिति में हमारा मन दिव्य हो जाता है। न्यास से पूर्व जड़ता की स्थिति होती है। जड़ता के चिंतन से और अपनी जड़ता से यह संसार मन को जड़ रूप में प्रतीत होता है। न्यास के बाद इसका वास्तविक चिन्मय स्वरूप स्फुरित होने लगता है और केवल चैतन्य ही चैतन्य रह जाता है।
इसी निमित्त न्यास योग के प्रवर्तक हमारे गुरु - डा . बी . पी . साही ने न्यास साधना को न्यासयोग में तब्दील किया। इस योग के माध्यम से शरीर, मन और आत्मा में संतुलन स्थापित करना सिखाया जाता है यही तंत्र, मंत्र और हर साधना का अंतिम लक्ष्य है। न्यास योग के माध्यम से गुरु जन-जन में साधना का सही स्वरूप निरुपित कर देना चाहते है ताकि समाज का हर व्यक्ति स्वस्थ हो, प्रसन्न हो।
न्यास का अर्थ है - स्थापना। बाहर और भीतर के अंगों में इष्टदेवता और मन्त्रों की स्थापना ही न्यास है।
इस स्थूल शरीर में अपवित्रता का ही साम्राज्य है,इसलिए इसे देवपूजा का तबतक अधिकार नहीं है जबतक यह शुद्ध एवम दिव्य न हो जाये। जबतक इसकी (हमारे शरीर की )अपवित्रता बनी है, तबतक इसके स्पर्श और स्मरण से चित में ग्लानि का उदय होता रहता है। ग्लानियुक्त चित्तप्रसाद और भावाद्रेक से शून्य होता है, विक्षेप और अवसाद से आक्रांत होने के कारण बार-बार मन प्रमाद और तन्द्रा से अभिभूत हुआ करता है। यही कारण है कि मन न तो एकसार स्मरण ही कर सकता है और न विधि-विधान के साथ किसी कर्म का सांगोपांग अनुष्ठान ही।
इस दोष को मिटाने के लिए न्यास सर्वश्रेष्ठ उपाय है। शरीर के प्रत्येक अवयव में जो क्रिया सुशुप्त हो रही है, हृदय के अंतराल में जो भावनाशक्ति मुर्छित है, उनको जगाने के लिए न्यास अचुक महा औषधि है।
शास्त्र में यह बात बहुत जोर देकर कही गई है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मन्त्रसिद्धि हो जाती है। हमारे भीतर-बाहर अंग-प्रत्यंग में देवताओं का निवास है, हमारा अन्तस्तल और बाह्रय शरीर दिव्य हो गया है - इस भावना से ही अदम्य उत्साह, अदभुत स्फूर्ति और नवीन चेतना का जागरण अनुभव होने लगता है। जब न्यास सिद्ध हो जाता है तब भगवान् से एकत्व स्वयंसिद्ध हो जाता है। न्यास का कवच पहन लेने पर कोई भी आध्यत्मिक अथवा आधिदैविक विघ्न पास नहीं आ सकते है और हमारी मनोवांछित इच्छाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।
ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार न्यास के प्रकार
न्यास कई प्रकार के होते है।
1. मातृका न्यास - १. अन्तर्मातृका न्यास २. बहिर्मातृका न्यास ३ संहारर्मातृका न्यास
2. देवता न्यास
3. तत्व न्यास
4. पीठ न्यास
5. कर न्यास
6. अंग न्यास
7. व्यापक न्यास
8. ऋष्यादि न्यास
इनके अतिरिक्त और भी बहुत से न्यास है, जिनके द्वारा हम अपने शरीर के असंतुलन को ठीक कर शरीर को देवतामय बना सकते है। सभी न्यास का एक विज्ञान है और यदि नियमपूर्वक किया जाय तो ये हमारे शरीर और अंत:करण को दिव्य बनाकर स्वयं ही अपनी महिमा का अनुभव करा देते है।
न्यास का महत्त्व
न्यास का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। जब शरीर के रोम-रोम में न्यास कर लिया जाता है, तो मन को इतना अवकाश ही नहीं मिलता और इससे अन्यत्र कहीं स्थान नहीं मिलता कि वह और कहीं जाकर भ्रमित हो जाय। शरीर के रोम-रोम में देवता, अणु-अणु में देवता और देवतामय शरीर। ऐसी स्थिति में हमारा मन दिव्य हो जाता है। न्यास से पूर्व जड़ता की स्थिति होती है। जड़ता के चिंतन से और अपनी जड़ता से यह संसार मन को जड़ रूप में प्रतीत होता है। न्यास के बाद इसका वास्तविक चिन्मय स्वरूप स्फुरित होने लगता है और केवल चैतन्य ही चैतन्य रह जाता है।
इसी निमित्त न्यास योग के प्रवर्तक हमारे गुरु - डा . बी . पी . साही ने न्यास साधना को न्यासयोग में तब्दील किया। इस योग के माध्यम से शरीर, मन और आत्मा में संतुलन स्थापित करना सिखाया जाता है यही तंत्र, मंत्र और हर साधना का अंतिम लक्ष्य है। न्यास योग के माध्यम से गुरु जन-जन में साधना का सही स्वरूप निरुपित कर देना चाहते है ताकि समाज का हर व्यक्ति स्वस्थ हो, प्रसन्न हो।
6 comments:
bahut achchi jankari hai
rekha
dhanybad.
Niyas kya hota hai
Niyas kese krte hai
Niyas kese krte hai
क्या महिलाओ को न्यास करना चाहिए या नही।
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