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Sunday 3 May 2020

*गुरुमुख से*-दूसरे के कर्मफल हमारे अंदर कैसे और क्यों संचित होते है?*

*आज का सन्देश*
*गुरुमुख से*

*कल हमारे अभ्यास सत्र में एक बहुत जीवंत प्रश्न सामने आया कि दूसरे के कर्मफल हमारे अंदर कैसे और क्यों संचित होते है?*

हमने गुरु-सत्ता के समक्ष यह प्रश्न रख दिया। उनकी ओर से एक बोधकथा सुनाई गई। 
एक राजा कुछ सन्यासियों के लिए भोजन बनवा रहे थे। रसोइया खुले में साफ-सफाई से भोजन तैयार कर रहा था। सभी आनन्द में थे। उसी समय ऊपर एक गिद्ध एक सर्प को चोंच में दबाए वहां से गुजरा। सर्प स्वयं को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा था। ठीक भोजन के बर्तन के पास आकर वह गिद्ध के मुख से छूट गया और भोजन में मिल गया। इस घटना को किसी ने नहीं देखा।
नियत समय पर सन्यासी खाने बैठे और जहरीले भोजन को खाकर मृत्यु को प्राप्त हुए।
अब ईश्वर के सामने बड़ा सवाल खड़ा हुआ कि इस घटना का कर्मफल किसे मिलेगा?
राजा और रसोइया को नहीं मिल सकता क्योंकि उन्होंने कोई षड्यंत्र नहीं किया था। गिद्ध भी अपना आहार लें जा रहा था। सर्प भी बचाव कर रहा था।
ईश्वरीय प्रशासन बड़ी चिंता में था, क्योंकि हर कर्म का फल किसी न किसी को भोगना ही है, यह सांसारिक चक्र का नियम है। तब इस कर्म का फल कौन भोगे? कर्मफल तो वही भोगेगा, जो इसको मथेगा। मथने वाले को ही मक्खन मिलता है। मक्खन ही तो कर्मफल है। 
तभी एक दिन एक सन्यासी राजा का पता पूछते शहर में आया। एक बूढ़ी स्त्री उधर से गुजर रही थी। उस स्त्री से भी सन्यासी ने राजा का पता पूछा।
उसने सन्यासी को राजा का पता बता दिया, पर साथ ही बोली, *ध्यान से जाना राजा सन्यासियों को खाना में जहर खिला देता है।*
बस ईश्वरीय सत्ता को समाधान मिल गया। इस सारी घटना का कर्मफल उस बूढ़ी स्त्री के हिस्से में डाल दिया गया।
कुछ दरबारी ने पूछा, आखिर क्यों? घटना के समय वह स्त्री थी नहीं, उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं, फिर कर्मफल उसको क्यों?
क्योंकि उसने इस घटना का पोषण किया। उसके मष्तिष्क में,विचार में यह घटना जीवित रही। उसने जीवित रखा, उसमें प्राण डाला, उसने इसे मथा। जिसने प्राण डाला, जिसने छाली को मथा, जो उस घटना को लेकर कर्मशील रहा, कर्मफल उसे ही तो मिलेगा।
गुरुजी ने सहजता से समझा दिया कि दूसरे के कर्म को हम मथेंगे, हम पोषण हम करेंगे तो कर्मफल भी हमें ही मिलेगा, हमें ही भोगना पड़ेगा। 
अपने या दूसरे के अच्छे कर्मों को मथेंगे तो अच्छे कर्मफल मिलेंगे। बुरे कर्मो को मथेंगे तो बुरे कर्मफल मिलेंगे। 
इतनी सी ही तो बात है। 
*कटुता के शब्द, क्रोध के शब्द, आक्रोश के शब्द, वैर-द्वेष के शब्द, आलोचना के शब्द, हंसी के शब्द, दूसरों के कर्मफल को संचित करने के साधन है।*
हम सतर्क रहें। 

*दिव्य प्रेम प्रगट हो रोग-शोक नष्ट हो*
*डॉ. रीता सिंह*
*न्यासयोग ग्रैंड मास्टर*

1 comment:

Anonymous said...

Thanx alot