न्यास: शरीर में ईश्वर की स्थापना
Dharm Desk Ujjain | May 18, 2010, 18:01PM IST
हिंदू शास्त्रों के अनुसार की जाने वाली सभी पूजा-अर्चना, उपासना,
यत्र आदि कर्मकांडों में न्यास का काफी महत्व माना गया है। पूजा-अर्चना की
अलग-अलग पद्धतियां है और उन्हीं के अनुसार न्यास के विधान में भी अंतर रहता
है।
न्यास अर्थात् किसी बुरे विचार या वस्तु के स्थान पर उस स्थान के सच्चे
स्वामी की स्थापना करना। हमारे शरीर में अहंकार, क्रोध, मोह-माया, द्वेष,
छल-कपट आदि बुराई को हटाकर मन मंदिर में परमात्मा की स्थापना करता है, उनका
आव्हान करता है अर्थात् उनका ध्यान करना ही न्यास है। न्यास को हर पूजा
आदि संस्कारों में अनिवार्य बताया गया है। न्यास तीन प्रकार के बताए गए
हैं-
अंग न्यास
अंग से तात्पर्य है हमारा शरीर। अंग न्यास में नेत्र, सिर, नासिका, हाथ,
हृदय, उदर, जांघ, पैर आदि अंगों में ईश्वर के प्रतीक जैसे सूर्य, चंद्र,
आदि शक्तियां मानकर उनका आव्हान किया जाता है या उन्हें स्थापित किया जाता
है। यह सभी शक्तियां हमारे कर्मो और विचारों को धर्म संगत कार्य करने के
लिए प्रेरित करती है। साथ ही हमारी सोच सकारात्मक बनती है।
कर न्यास
कर अर्थात् हमारे हाथ। हाथ कर्मों का प्रतीक है। हमें हाथों से शुभ कर्म
करने चाहिए जिनसे सभी का कल्याण हो। कर न्यास में हाथों की अंगुलियां,
अंगूठे और हथेली को दैवीय शक्ति से अभिमंत्रित करते हैं।
मातृका न्यास
मातृका अर्थात् वाणी। हमारी वाणी में सरस्वती का निवास माना जाता है।
मातृका न्यास में साधक माता सरस्वती को वेद मंत्रों की शक्ति से लीला करते
हुए अनुभव करता है। हम इस न्यास से बुद्धि, मोह-ममता के बंधन से मुक्त हो
जाते हैं।
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